उखेड़ा रोग

उखेड़ा रोग के लक्ष्ण :

        पश्चिमी क्षेत्र में उखेड़ा रोग की अधिक समस्या होती है। यह बीमारी बिजार्इ के 3-6 सप्ताह बाद दिखार्इ पड़ती है। पत्तियां मुरझा कर लुढ़क जाती हैं परन्तु उन में हरापन बना रहता है। तने को चाकू से लम्बार्इ में काटने पर अन्दर से रस वाहिकी भूरी काली तथा भद्दी सी दिखार्इ पड़ती है। हालांकि इनमें से बहुत से लक्षण लवणता,भूमि में कम नमी तथा दीमक आदि द्वारा भी हो सकते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि इसके उपचार से पूर्व इसके बारे में पूरी जानकारी हासिल कर लें।

उखेड़ा रोग से बचाव:

1. कृषिक्रियाएं :

      उखेड़ा रोग से बचाव के लिए भूमि में नमी बनाए रखें तथा 10 अक्तूबर से पहले बिजार्इ न करें।

2.    उखेड़ा रोगरोधी/सहनशील किस्में:

      हरियाणा चना नं. 1, हरियाणा चना नं.  3,  हरियाणा चना नं. 5, हरियाणा काबली नं. 1 व हरियाणा काबली नं. 2 बोयें।

3.      बीजोपचार 

      बाविस्टीन 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीज को उपचारित करें।

      बिजार्इ से पूर्व बीज का उपचार जैविक फफूँदीनाशक ट्रार्इकोडरमा विरिडी (बायोडरमा) 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज +विटावैक्स 1ग्राम प्रति किलोग्रामबीज की दर से करें। बीजोपचार के लिए ग्राम बायोडरमा और ग्राम विटावैक्स का उनकी मात्रा के बराबर पानी (5 मि.ली.) में लेप बनाकर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करें।