कपास के रोगों की रोकथाम के सामूहिक उपाय

बीज उपचार : पौधों को जमीन से उत्पन्न बहुत से फफूंदों से तथा बीज में रहने वाले जीवाणु से बचाव के लिए फफूंदनाशक दवाइयों से उपचारित करें।

छिड़काव कार्यक्रम : बिजाई के 6 सप्ताह बाद अथवा जून के अन्तिम या जुलाई के पहले सप्ताह में प्लेण्टोमाइसिन (30-40 ग्राम प्रति एकड़) या स्ट्रैप्टोसाइक्लिन (6-8 ग्राम प्रति एकड़) कॉपर आक्सीक्लोरारईड(600-800 ग्राम प्रति एकड़) को 150-200 लीटर पानी में मिलाकर 15-20 दिन के अन्तर पर लगभग 4 छिड़काव करें।

टिण्डा गलन रोग पर नियन्त्रण के लिए सिफारिशशुदा सूण्डी नियन्त्रण वाली दवाइयां कॉपर आक्सीक्लोराईड (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या बाविस्टिन (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) के साथ मिलाकर छिड़काव करें। इन फफूंदनाशक दवाइयों को पत्तों पर अच्छी तरह चिपके रहने के लिए दवा के 100 लीटर घोल में 10 ग्राम सैल्वेट 99 या 50 मि.ली. ट्राइटोन मिला लें।

यदि गन्धक 10 कि.ग्रा./एकड़ धूड़ें या बाविस्टिन (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें तो देसी कपास के ग्रैमिल्ड्यू रोग पर नियन्त्रण पाया जानसकता।है।

अन्य उपाय : 

()  जिन खेतों में पिछले वर्ष जड़ गलन रोग की समस्या रही हो वहां कम से कम तीन साल तक कपास बोयें।

()  जड़ गलन वाले खेतों में कपास की एक कतार के बाद मोठ की एक कतार बोयें।

()    कपास  के बचे हुए ठूंठों को गहरी जुताई कर नष्ठ करे।अच्छी तरह गलने के लिए जुताई के बाद पानी दे दें।स्वयं उगे हुए पौधों को नष्ट कर दें।

()   जमीन में छुपे फफूंदों के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिए।

()   पानी के नालों/खालों, बंजर भूमि, खेत की मेड़ों पर, सड़क के किनारों पर ’’पीली बूटी, कंघी बूटी‘‘ अन्य खरपतवारों को नष्ट कर दें। भिण्डी गुलखेरा की खेती कपास के निकट करें।

()   नींबू जाति के बागों के पास अन्दर अमेरिकन कपास बोयें।

()  कपास की मोढ़ी फसल कभी रखें। क्योंकि यह फसल सफेद मक्खी पत्ता मरोड़ रोग दोनों को पनाह देती है।

()  खेतों में गोबर की खाद अवश्य डालें ताकि फसल को सूखने वाले रोग से बचाया जा सके।

()  सूखे की अवस्था में सिन्थैटिक पैरिथराईडस का स्प्रे करें क्योंकि ऐसा करने से फसल में सूखने वाला रोग ज्यादा बढ़ जाता है।

()   फसल की लगातार निगरानी रखनी चाहिए पत्ती मरोड़ रोग से ग्रस्त पौधों को बढ़वार की अवस्था तक उखाड़ कर दबा देना चाहिए याजला देना चाहिए।

कपास के तिड़क रोग से टिण्डे ठीक तरह से नहीं खुलते। यह रोग हरियाणा के पश्चिमी क्षेत्रों में कभी-कभी लगने लगता है। 

रेतीली जमीनों में नाइट्रोजन की कमी के कारण कपास के पत्तों का रंग लाल पड़ जाता है व बढ़वार रुक जाती है।

फूल तथा टिण्डे लगने के समय आवश्यकतानुसार खाद डालने व पानी देने से जमीन के तापमान में कमी आती है और इस रोग की रोकथाम में आसानी होती है।